कुछ पाया है,
कुछ खोया है,
दुनिया के इस खेल को,
हस्ते हस्ते खेला है,
ना जीत की थी फिकर,
ना हार की,
फिर क्यों अपनों ने अपनों को ही खोया है।
सूरज की रौशनी ने,
चँद्रमा की चाँदनी ने,
साथ निभाना सिखाया है हमें।
तेज से चम्मकना,
धीरे से ढलना,
भी सिखाया है हमें।
फिर क्यों कल की चाहत ने,
इस कदर डुबाया है हमें,
फिर क्यों सब कुछ पाके भी,
सब कुछ खो दिया है हमने।।
फिर कैसे करे प्रयास,
फिर कैसे सुनाये अपनी ये पुकार,
संसार में मच गया ये अपनों का कैसा भयानक महाकाल।
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